[B.A. 1st] निबंध साहित्य का उद्भव और विकास | Nibandh Sahitya Ka Udbhav Aur Vikas

[B.A. 1st] निबंध साहित्य का उद्भव और विकास | Nibandh Sahitya Ka Udbhav Aur Vikas

नमस्कार दोस्तों, आज की इस लेख में आपको सभी का स्वागत हैं| आज की इस लेख में आप सभी को निबंध साहित्य का उद्भव और विकास के बारे में बताया जायेगा| यह लेख खासकर B.A. में पढ़ रहे विद्यार्थियों के लिए हैं| इस लेख में आपको निबंध साहित्य का उद्भव और विकास देखने को मिलता हैं| इस लेख के अंतर्गत आपको अलग अलग लेखको के योगदान के बारे में पता चलेगा|

निबंध साहित्य का उद्भव और विकास भूमिका

आधुनिक काल को गद्यकाल भी कहा जाता है। निबन्ध का जन्म आधुनिक काल में हुआ है। इस युग में जन्म और विकास की दृष्टि से हिन्दी में गद्य की विविध विधाओं का विकास इस क्रम से हुआ है-निबन्ध, नाटक, आलोचना, उपन्यास तथा कहानी। हिन्दी निबन्ध का आरम्भ पत्रकारिता से प्रभावित रहा है।

इसका पूर्व रुप टिप्पणी के रुप में था। भारतेन्दु युग के सभी निबन्धकार सम्पादक थे। ये निबन्ध, लघु निबन्ध और टिप्पणियां नये रचनाकारों अथवा नयी पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों द्वारा लिखी जाती थी। भारतेन्दु हरिश्चन्द के साथ निबन्ध के साहित्यिक रूप का विकास हुआ।

राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्दी’ के निबन्ध ‘राजा भोज का सपना’ (सन् 1839) की हिन्दी का प्रथम स्वतन्त्र मौलिक निबन्ध माना जा सकता है। उस समय कई लोगों ने निबन्ध लिखे। उस समय निबन्ध का कोई एक सुनिश्चित स्वरूप उभरकर सामने नहीं आ पाया था। यह काम कुछ समय के भारतेन्दु हरिश्चन्द और उनके समकालीन लेखकों द्वारा किया गया। उन्होंने निबन्ध को एक नयी दिशा दी । इस प्रकार वे लेखक निबन्ध लेखन की एक स्वस्थ सुव्यवस्थित परम्परा स्थापित करने में सफल हुए।

हिन्दी निबन्ध का विकास [Hindi Nibandh Ka Vikas]

हिन्दी में निबन्ध लेखन का आरम्भ भारतेन्दु के समय से ही मानना चाहिए। तब से लेकर आज तक निबन्ध लेखन निर्बाध रुप से चला आ रहा है और अब तक अनगिनत निबन्ध लिखे जा चुके हैं। निबन्ध के विकास की प्रक्रिया के चार चरण हैं। अध्ययन की सुविधा के विचार से हम निबन्ध के विकास की चर्चा इन युगों के क्रम के अनुसार करेंगे ।

  • भारतेन्दु युग
  • द्विवेदी युग
  • शुक्ल युग
  • शुक्लोत्तर युग
  • वर्तमान युग।

भारतेन्दु युग [Bharatendu Yug]

इस युग में निबन्ध के क्षेत्र में नवीन प्रयास किये गये । भारतेन्दु तथा उनके समकालीन लेखकों ने गम्भीर एवं सामान्य दोनों प्रकार के विषयों पर लेखन का कार्य किया। उस समय निबन्ध की कोई एक मान्य शैली नहीं थी। इसीलिए निबन्ध लेखन शैली के अनेक प्रयोग किये गये।

भारतेन्दु युग नवजागरण का काल था। इसके सामने सामाजिक एवं राष्ट्रीय पुननिर्माण की अनेक चुनौतियाँ थीं। इस समय के सभी रचनाकार अपनी संस्कृति के खोये हुए मूल्यों की पुनः स्थापना में लगे थे। इस कार्य को पूरा करने के लिए एक विशेष आदर्शवादी एवं सुधारवादी दृष्टि की आवश्यकता थी। इस युग के सभी निबन्धकार अपने कर्तव्य के प्रति सजग थे। भारतेन्दु युग के सभी लेखक प्रायः सम्पादक थे। इस युग में कुछ ललित एवं साहित्यिक निबन्ध भी लिखे गये।भारतेन्दु युग के निबन्धों की भाषा आम जनता की भाषा थी।

इनके लेखन शैली में लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग था। हास्य और व्यंग्य विनोद प्रायः सभी निबन्धों में देखा जा सकता है । भारतेन्दु के अतिरिक्त इस युग के निबन्धकारों में बालकृष्ण भट्ट, पं० प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, बाल मुकुन्द गुप्त, राधाचरण गोस्वामी, अम्बिका दत्त व्यास के नाम प्रमुख है धर्म, समाज, राजनीति खोज, यात्रा, प्रकृति चित्रण, आलोचना, व्यंग्य-विनोद, आत्मचरित्र इत्यादि विषयों को भारतेन्दु हरिश्चन्द ने अपने लेखन का विषय बनाया। अपने निबन्धों के माध्यम से रुड़ियों, कुरीतियों और पूर्वाग्रहों पर व्यंग्य भी किया।

भारतेन्दु हरिश्चन्द के अतिरिक्त तीन निबन्धकार बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रतापनारायण मिश्र, और बालमुकुन्द गुप्त अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ये तीनों साहित्यकार अपने समय के जागरुक, कर्मठ और समाजसेवी पत्रकार भी थे। इस के जागरूक, कर्मठ और समाजसेवी पत्रकार भी थे। इस युग के निबन्धों में विषय और शैली दोनों में विविधता है।

द्विवेदी युग [Dwedi Yug]

इस युग के समय तक देश में शिक्षा का प्रसार हो चुका था। उस समय का शिक्षित वर्ग जनसाधारण की भाषा से अलग शालीन एवं शिष्टतापूर्ण ढंग से कोई बात कहना और सुनना चाहता था। इस नवीन वातावरण में स्वच्छन्दता को कोई विशेष महत्व नहीं रह गया था। हिन्दी साहित्य को विशिष्ट एवं अभिजातवर्गीय बनाने का कार्य आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया ‘सरस्वती’ के सम्पादक का कार्यभार ग्रहण करते ही इन्होंने निबन्ध साहित्य के क्षेत्र में सुधार का कार्य आरम्भ कर दिया।

इन्होंने सशक्त अभिव्यक्ति के लिए भाषा का संस्कार, परिष्कार एवं नियमन किया। द्विवेदी आदर्शवादी थे। उन्होंने नैतिक आदर्शो पर बल देकर एक विशेष प्रकार की आदर्शवादी चिन्तन धारा को चलाया। इससे निबन्धों के विषय और शैली दोनों ही क्षेत्रों में गम्भीरता आ गयी। ऐतिहासिकता की दृष्टि से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का महत्व अधिक है। उन्होंने अनेक प्रकार के निबन्धों के लेखन का कार्य किया है। उन्होंने अंग्रेजी निबन्ध लेखक बेकन की तरह विचार-प्रधान निबन्ध लिखे हैं। इनके निबन्धों में तत्व विवेचन की प्रधानता है।

भाषा की शुद्धता, शब्द-प्रयोग पटुता आदि भाषा के गुण इनके निबन्धों में यत्र-तत्र मिल जाते हैं। इनके निबन्धों में सरसता एवं सहजता का अभाव सा है। ‘कवि और कविता’, साहित्य की महत्ता, प्रतिभा, उपन्यास, नाटक, हंस का नीरक्षीर विवेक आदि इनके प्रमुख निबन्ध हैं। इस युग के निबन्धकारों में बाबू श्यामसुन्दर धर शर्मा, ‘गुलेरी’, सरदार पूर्ण सिंह, गोपाल राम गहमरी, बाबू गुलाब राय, ब्रजनन्दन सहाय, गंगा प्रसाद अग्निहोत्री, पदुम लाल पुन्नालाल बख्शी, जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, किशोरी दास बाजपेयी, शिवपूजन सहाय, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मोहनलाल महतो, वियोगहरि, का नाम प्रमुख है। इस युग के निबन्धकार पं0 माधव प्रसाद मिश्र, पं० चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ और सरदार पूर्ण सिंह अपनी विशिष्ट शैली और प्रतिभा के कारण विशिष्ट स्थान रखते हैं।

शुक्ल युग [Shukla Yug]

– आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निबन्ध-क्षेत्र में आना एक बड़ी घटना है। उनके इस क्षेत्र में आने से निबन्ध साहित्य को एक नया जीवन प्राप्त हुआ। उनके निबन्धों में उच्च कोटि का विश्लेषण एवं विचारों की गम्भीरता है। शुक्ल जी ने लेखन कार्य द्विवेदी युग से ही आरम्भ किया था परन्तु उनकी प्रतिभा का विकास बाद में हुआ। आचार्य शुक्ल ने विचारात्मक मनोवैज्ञानिक, समीक्षात्मक भावात्मक आदि सभी प्रकार के निबन्धों के लिखा है। इनके निबन्ध ‘चिन्तामणि’ भाग-1 और दो तथा ‘विचार वीथी’ नामक संग्रहों के

रुप में प्रकाशित हुए है। आचार्य शुक्ल ने भारतीय एवं पाश्चात्य निबन्ध शैलियों का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया। इससे द्विवेदी युग की गद्य शैली को एक नया रूप प्रदान किया। ‘साधारणीकरण और व्यक्ति ‘वैचित्रयवाद, रसात्मक बोध के विविध रूप, कविता क्या है, श्रद्धा, उत्साह, शीर्षक निबन्ध इनके मनोवैज्ञानिक निबन्ध है।

बाबू गुलाबराय, प्रेमचन्द, श्यासुन्दरदास, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, निराला, पन्त, पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी, राहुल सांकृत्यायन, वियोगहरि, चतुरसेन शास्त्री, सियाराम शरण गुप्त, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, शान्ति प्रिय द्विवेदी, डॉ० सम्पूर्णानन्द शुक्लयुग के प्रमुख निबन्धकार हैं। इन सभी लोगों ने उच्चकोटि के विचारात्मक निबन्धों की रचना की है।

इस युग में शुक्ल जी के बाद बाबू गुलाब राय तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम प्रमुख है। बाबू गुलाब राय, अपने निबन्ध ‘मेरी असफलताएं’ से लोकप्रिय हुए। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्धों में गहन अध्ययन, चिन्तन-मनन, एवं गवेषणात्मक शैली के दर्शन होते हैं।

इस युग में निबन्ध लेखन का अत्यधिक विकास हुआ है। इसी युग में निबन्धों में प्रौढ़ता आयी तथा भाषा में एक नयी अभिव्यंजनाशैली का विकास हुआ।

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शुक्लोत्तर युग [Shuklottar Yug]

शुक्ल जी के उपरान्त उनकी निबन्ध शैली का विकास हुआ। उनकी परम्परा के कई निबन्धकार इसी समय सामने आये। इनमें प्रमुख हैं-गुलाबराय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नन्ददुलारे बाजपेयी, डॉ० नगेन्द्र डा० वासुदेव शरण अग्रवाल, शान्तिप्रिय द्विवेदी, डॉ० विद्यानिवास मिश्र, डॉ० कुबेरनाथ राय आदि । इस युग में नवीन परिवेश में कई प्रकार के निबन्ध लिखे गये। मनोवैज्ञानिक निबन्धकारों में इलाचन्द जोशी, जैनेन्द्र अज्ञेय के नाम प्रमुख हैं।

यशपाल, शिवदानसिंह चौहान डॉ० नामवर सिंह ने समाजवादी विचारधारा से प्रभावित अनेक निबन्ध लिखे हैं। इस युग में हास्य व्यंग्य की शैली का पुनः उत्थान हुआ। हास्य-व्यंग्य परक निबन्ध लिखने वालों में- बाबू गुलाब राय, गोपाल प्रसाद व्यास, बेढब बनारसी, हरिशंकर परसाई, शरदजोशी ललित शुक्ल, इन्द्रनाथ मदान, आदि हैं। इन लोगों के कई निबन्ध संग्रहप्रकाशित हो चुके हैं।

इस पीढ़ी के ललित निबन्धकारों में श्री विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय के नाम उल्लेखनीय हैं। शुक्लोत्तर युग के मानवतावादी दृष्टिकोण के सशक्त प्रतिपादक आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी सर्वश्रेष्ठ निबन्धकार हैं। यात्रा सम्बन्धी निबन्धकारों में राहुल सांकृत्यायन, देवेन्द्र सत्यार्थी, सत्यदेव परिव्राजक, के नाम उल्लेखनीय हैं।

भदन्त आनन्द कौशल्यायन, प्रभाकर माचवे, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ‘धर्मवीर भारती’ अज्ञेय ने भी क्षेत्र में कार्य किया। संस्मरणात्मक निबन्धकारों में पं० बनारसी दास चतुर्वेदी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आधुनिक काल में निबन्ध साहित्य की उन्नति हुई। कई शैलियों का विकास हुआ है। उन शैलियों पर अनगिनत रचनाकारों ने अनगिनत रचनाएँ की हैं। आज के निबन्धों में जीवन की याथार्थता कविता की भावुकता, नाटक की नाटकीयता, उपन्यास की मनोरम कल्पनाशीलता, विचारों की उत्कृष्टता, आदि सबका समावेश दिखायी देता है। भाषा का परिष्कार एवं शब्द भण्डार की वृद्धि हुई है।

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