ध्रुवस्वामिनी नाटक के आधार पर चन्द्रगुप्त का चरित्र-चित्रण (B.A. Ist year)

ध्रुवस्वामिनी नाटक के आधार पर चन्द्रगुप्त का चरित्र-चित्रण (B.A. Ist year)

प्रिय पाठक, उम्मीद करता हूँ की आप सभी लोग अच्छे होंगे allhindi.co.in के एक नए लेख में आपका स्वागत है। आज की इस नए लेख में आप ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक के आधार पर चन्द्रगुप्त का चरित्र-चित्रण के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करेंगे। इसके पिछले लेख में आपने प्रकाश संश्लेषण के बारे में जाना था। तो आइए जानते है की ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक के आधार पर चन्द्रगुप्त का चरित्र-चित्रण

ध्रुवस्वामिनी नाटक के आधार पर चन्द्रगुप्त का चरित्र-चित्रण

चन्द्रगुप्त सम्राट समुद्रगुप्त का द्वितीय पुत्र है। रामगुप्त का छोटा भाई है। वह ध्रुवस्वामिनी का प्रेमी है। राज्य का वास्तविक अधिकारी वही था क्योंकि स्वर्गीय समुद्रगुप्त ने राज्य का उत्तराधिकारी उसी को घोषित किया था। आन्तरिक कलह को बचाने के लिए वह अपना राज्याधिकार अपने बड़े भाई रामगुप्त को सौंप देता है। अपने इस त्याग से अपने यश को फैलाता है, वहीं उसे पाठकों या दर्शकों को सहानुभूति प्राप्त कर लेता है। 

चन्द्रगुप्त की चारित्रिक विशेषताएँ-चन्द्रगुप्त की चारित्रिक विशेषताओं का मूल्यांकन हम निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत कर सकते हैं।

ध्रुवस्वामिनी' नाटक के आधार पर चन्द्रगुप्त का चरित्र-चित्रण
ध्रुवस्वामिनी’ नाटक के आधार पर चन्द्रगुप्त का चरित्र-चित्रण

आदर्श प्रेमी

चन्द्रगुप्त एक आदर्श प्रेमी है। उसका प्रेम वासना से युक्त नहीं है। उसके प्रेम में त्याग और गम्भीरता है। ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त की वाग्दत्ता पत्नी थी, इसके बाद भी रामगुप्त ने उससे विवाह कर लिया था। इस स्थिति में चन्द्रगुप्त युद्ध और विनाश को बचाते हुए इसका विरोध नहीं करता है। वह कहता है-‘मेरे हृदय के अन्धकार में प्रथम किरण—सी आकर जिसने अज्ञात भाव से अपना मधुर आलोक ढाल दिया था, उसको भी मैंने केवल इसीलिए भूलने का प्रयत्न किया।

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ध्रुवस्वामिनी को इतना अधिक चाहते हुए भी वह असंयमित नहीं होता, बल्कि ध्रुवस्वामिनी भाव के आवेश में अपने प्रेम भाव को  प्रकट कर देती है। शक शिविर पर विजय के उपरान्त वह वहाँ से चला जाना चाहता है। वह मंदाकिनी से कहता है-मेरा कर्त्तव्य पूर्ण हो चुका है। अब यहाँ मेरा ठहरना अच्छा नहीं। लेकिन जब मंदाकिनी द्वारा उसे ध्रुवस्वामिनी की प्रेम भावना का पता चलता है तो उसका मन क्षोभ से भर जाता है। 

वह विचलित हो उठता है-‘विधान की स्याही का एक बिन्दु गिरकर भाग्यलिपि पर कालिमा चढ़ा देता है। मैं आज यह स्वीकार करने में भी संकुचित हो रहा हूँ कि ध्रुवदेवी मेरी है। (ठहरकर) हाँ, वह मेरी है उसे आरम्भ से ही अपनी सम्पूर्ण भावना से प्यार किया है। मेरे हृदय के गहन अन्तस्तल से निकली हुई यह मूक स्वीकृति आज बोल रही है। मैं पुरुष हूँ? नहीं, मैं अपनी आंखों से अपना वैभव और अधिकार दूसरों को अन्याय से छीनते देख रहा हूँ और वाग्दत्ता पत्नी मेरे ही अनुत्साह से आज मेरी नहीं रही। “इस प्रकार की भयंकर भावना के आने पर भी वह अपने को संयमित करता है।

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 मर्यादा का रक्षक

चन्द्रगुप्त मर्यादाओं की रक्षा करने वाला है। इसी मर्यादा की रक्षा के लिए वह रामगुप्त का विरोध नहीं करता है। रामगुप्त की विलासी और दुराचारी प्रवृत्तियों को देखकर भी वह चुपचाप सहन कर लेता है। लेकिन सन्धि-प्रस्ताव के अनुसार जब रामगुप्त, ध्रुवस्वामिनी को शक-शिविर में भेजना चाहता है तो वह शान्त नहीं बैठ पाता है। उस समय वह गुप्तकाल की पुरानी मर्यादा की, नारी जाति की प्रतिष्ठा की, मातृभूमि के सम्मान की वीरों के दर्प की और अपने पुरुषत्व आदि की रक्षा के लिए कटिबद्ध होता है। 

अपने जीवन को दांव पर लगाते हुए यह उद्घोष करता है-‘ यह नहीं हो सकता महादेवी! जिस मर्यादा के लिए जिस महत्त्व को स्थिर रखने के लिए, मैने राजदण्ड न ग्रहरण करके अपना मिला हुआ अधिकार छोड़ दिया, उसका यह अपमान! मेरे जीवित रहते, आर्य समुद्र गुप्त के स्वर्गीय गर्व को इस तरह पददलित होना न पड़ेगा।

पराक्रमी

चन्द्रगुप्त अत्यन्त पराक्रमी है। वीरता, साहस और पराक्रम ये तीनों गुण उसके वक्ष में सदैव स्थित रहते है।

 उसको अपनी शक्ति पर पूर्ण विश्वास है। अपनी शक्ति पर विश्वास करके ही वह स्त्रीवेश में ध्रुवस्वामिनी के साथ शक शिविर में जाता है और शकराज को द्वन्द्व के लिए ललकारता हुआ कहता है-” मैं हूँ चन्द्रगुप्त तुम्हारा काल। मैं अकेला आया हूँ, तुम्हारी वीरता की परीक्षा लेने। “और अन्त में शकराज का वध कर देता है और शकराज के सामन्तों का भी वध कर देता है। नाटक के प्रारम्भ में खड्गधारिणी द्वारा कहे गये शब्द सटीक प्रतीत होते हैं-‘रही अभ्युदय की बात, सो, तो, उनको अपने बाहुबल और भाग्य पर ही विश्वास है।” 

आकर्षक व्यक्तित्व

चन्द्रगुप्त का व्यक्तित्व आकर्षक है। उसके व्यक्तित्व के आकर्षण के कारण ही ध्रुवस्वामिनी आकर्षित होती है और उसकी दीवानी हो जाती है। इस सम्बन्ध में ध्रुवस्वामिनी का कथन’ कुमार की स्निग्ध, सरल और सुन्दर मूर्ति को देखकर कोई भी प्रेम से पुलकित हो सकता है। ‘इस बात की पुष्टि करता है। शकराज भी चन्द्रगुप्त के अद्वितीय सौन्दर्य को देखकर आश्चर्य चकित हो जाता है। ध्रुवस्वामिनी के साथ नारी वेश धारी चन्द्रगुप्त को अपनाने के लिए तत्पर हो जाता है। 

विनय एवं शीलवान

चन्द्रगुप्त के अन्दर मानव को सुशोभित करने वाले दोनों गुण विनय एवं शील विद्यमान है। वह विनयी एवं शीलवान होने के कारण ही अपने बड़े भाई रामगुप्त का विरोध नहीं कर पाता है। ध्रुवस्वामिनी और राज्य का त्याग उसके इन्हीं गुणों का परिणाम है। लेकिन जब ध्रुवस्वामिनी को शकराज के पास भेजने कीबात आती है, तो उसका विनय एवं शील उसको कर्तव्य की ओर उन्मुख कर गुप्त कुल के मर्यादा की रक्षा की प्रेरणा देता है।

धैर्यवान

चन्द्रगुप्त अत्यधिक धैर्यवान है। वह कभी धैर्य के रास्ते से डिगता नहीं-नहीं है। शक-शिविर पर अधिकार करने के पश्चात् वह चाहता तो राज्य सत्ता अपने हाथों में ले लेता और रामगुप्त को पदच्युत कर देता। वह धैर्य का त्याग नहीं करता। रामगुप्त वहाँ आकर चन्द्रगुप्त को बन्दी बनाने की आज्ञा देता है। वह शालीनता के साथ बन्दी बन जाता है।

ध्रुवस्वामिनी उसे विरोध करने के लिए उकसाती है, लेकिन वह चुप रहता है, वह कोई ऐसा कार्य नहीं करता जिससे राजा की आज्ञा का विरोध हो और सम्राट की मर्यादा भंग हो। जब रामगुप्त के द्वारा अत्याचार की पराकाष्ठा हो जाती है तो वह कहता है-‘ मैं भी आर्य समुद्रगुप्त का पुत्र हूँ शिखर स्वामी, तुम यह अच्छी तरह जानते हो कि मैं उनके द्वारा निर्वाचित युवराज भी हूँ। तुम्हारी नीचता अब असहय है। तुम अपने राजा को लेकर इस दुर्ग से सकुशल बाहर चले जाओ। यहाँ अब मैं ही शकराज के समस्त अधिकारों का स्वामी हूँ। ” इस स्थल पर चन्द्रगुप्त का पौरुष और स्वाभिमान जाग उठता है।

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