[pdf] ध्रुवस्वामिनी नाटक की मूल समस्या पर प्रकाश डालिए | (B.A. 1st year)

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प्रिय पाठक (Friends & Students)! allhindi.co.in में आपका स्वागत है। उम्मीद करता हूँ आप सब लोग अच्छे होंगे। आज की इस नए लेख में आप ध्रुवस्वामिनी नाटक की मूल समस्या पर बात करेंगेइसके बारे में जानेंगे। इसके अलावा आप इस प्रकार के प्रश्नो ( ध्रुवस्वामिनी’ एक समस्या नाटक है। सप्रमाण उत्तर दीजिए, समस्या-नाटक के रूप में ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक का मूल्यांकन कीजिए। ध्रुवस्वामिनी एक समस्या प्रधान नाटक है। ‘इस कथन के आधार पर ध्रुवस्वामिनी नाटक में उठाई गई समस्याओं पर विचार कीजिए।) का जवाब भी यही होगा।

ध्रुवस्वामिनी नाटक की मूल समस्या

भूमिका-‘ ध्रुवस्वामिनी ‘की कथा गुप्तकाल के इतिहास पर आधारित है। इसलिए नाटककार ने उस युग की सामाजिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का सफल चित्रण किया है। चूंकि कवि एक सामाजिक प्राणी है वह अपने आसपास से ही रचना की विषय वस्तु चुनता है। वह भले ही किसी समय की रचना कर रहा हो उसमें आधुनिक समय की समस्यायें जाने अनजाने में आ ही जाती हैं। ऐसा ही कुछ’ ध्रुवस्वामिनी ‘के साथ भी है। जयशंकर प्रसाद ने’ ध्रुवस्वामिनी ‘की ऐतिहासिक कथा के माध्यम से आधुनिक काल की समस्याओं को अंकित कर दिया है।

ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा

नारी की सामाजिक स्थिति की समस्या– ध्रुवस्वामिनी ‘नाटक की रचना करते समय प्रसाद जी को जिस समस्या ने प्रभावित किया वह है नारी की सामाजिक स्थिति की समस्या। हम सभी जानते हैं कि विदेशी सभ्यता की चकाचौंध कर देने वाली जीवन पद्धति व साहित्य के वातावरण में जब भारतीय जन-मानस अपने को भूलकर अपनी परम्परा, संस्कृति और राष्ट्रीयता भूल रहा था उसी समय श्री जयशंकर प्रसाद ने अपने देश के गौरवशाली अतीत का चित्रण करते हुए भारतीय जन-जीवन में राष्ट्रीयता का भाव जागृत किया।

ध्रुवस्वामिनी नाटक की मूल समस्या

इस सम्बन्ध में स्वयं नाटककार का कथन द्रष्टव्य है-“मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंशों में से उन प्रकाण्ड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है।” प्रसाद जी की इस विचारधारा से स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने अतीत का चित्रण वर्तमान समय की समस्याओं के अनुकूल किया है।

उनका अपना विचार था कि भारत के इतिहास के प्राचीन उद्धरणों को सामने रखकर ही भारतकी अखण्डता और भारतीय संस्कृति का पुन: उत्थान सम्भव है। इसीलिए प्रसाद जी के सभी नाटक ऐतिहासिक सम्भव है। परन्तु उनमें वर्तमान की झलक दिखायी देती है। “ध्रुवस्वमिनी’ का रचना काल 1933 ई 0 है। इसी समय भारतीय समाज में नारी के उत्थान की बात चल रहीं थी। जैसे नारी शिक्षा, विवाह, उनके अधिकार, पुनः विवाह इत्यादि। शदियों से पीड़ित, अपने अधिकारों से वंचित, उपेक्षित नारी अपनी अपेक्षित शक्ति अथवा अधिकार से आज भी वंचित है।

ध्रुवस्वामिनी नाटक की मूल समस्या

विदेशी जीवन से प्रभावित लोगों ने नारी का केवल मोक्ष ही एक उपाय माना है, लेकिन प्राचीन विचारधारा को मानने वाले लोग मोक्ष या तलाक को निम्न मानते हैं। यही कारण है कि प्रसाद जी ने ऐतिहासिक काल में आधुनिक सामाजिक समस्याओं को समाधान ढूंढ़ने के लिए ‘ध्रुवस्वामिनी’ की रचना की। ‘ध्रुवस्वामिनी’ में नारी के जीवन को असमान स्थिति तथा उसका समाधान है। प्राचीन भारत के इतिहास में जो प्रकाशित नहीं है, उस सुनहले खण्ड के द्वारा प्रसाद जी ने नारी की शाश्वत समस्या प्रेम विवाह को चित्रित किया है। वह समस्या इतनी व्यापक है कि देशकाल की सीमा को पार करके सार्वकालिक बन गयी है।

ध्रुवस्वामिनी नाटक की मूल समस्या

पुरुष की पशुवत् वृत्तियाँ नारी जीवन की कोमल भावनाओं के स्वाभाविक विकास में शुरू से ही अवरोधक रही है। ध्रुवस्वामिनी और रामगुप्त का बेमेल और राक्षस विवाह इसका द्योतक है। राजनीतिक कारणों से चन्द्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी से विवाह करता है, लेकिन दोनों के विचारों में विषमता बनी रहती है। रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी को अपना नहीं बना पाते है। इसका कारण यह है कि वह डरपोक, विलास प्रिय और इसी स्वभाव के कारण वह शंकालु बना रहता है।

रामगुप्त सुरा और सुन्दरियों के भीड़ में रात-दिन व्यस्त रहता है। जिसके परिणाम स्वरूप शकराज के आक्रमण के जाल में फँस जाता है और सन्धि प्रस्ताव को मानने के लिए बाध्य होता है। राजा की मार्यादा पुरुषत्व, मानवता तथा पति की नैतिकता को कलंकित करने वाला, प्रस्ताव मानने वाला रामगुप्त जब अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज के पास जाने का आदेश देता है

उस समय नारी का सम्मान बेचैन हो जाता है। पत्नी होने की दुहाई देती हुई ध्रुवस्वामिनी अपनी रक्षा की दुहाई देती है, लेकिन रामगुप्त उसकी प्रार्थना पर तनिक भी ध्यान नहीं देता है। रचनाकार ने ध्रुवस्वामिनी और रामगुप्त के बेमेल विवाह के दुष्परिणाम दिखाने के साथ ही कोमा और शकराज के प्रेम प्रसंग के माध यम से नारी समस्या का एक अन्य चित्र भी उपस्थित किया है।

ध्रुवस्वामिनी नाटक की मूल समस्या

कोमा का निःस्वार्थ प्रेम, समर्पण, स्नेह सिक्त भावुकता, शकराज की प्रतिहिंसा, उसकी स्वार्थी प्रवृत्ति तथा राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का शिकार होती है। जहाँ ध्रुवस्वामिनी विवाह के बाद पति के प्रेम से वंचित होती है, वहीं कौमा विवाह के पूर्व ही अपने प्रेमी से उपेक्षित होती है। शकराज की वास्तविक मूर्ति के अवलोकन के बाद वह तड़प उठती है। जिसक परिणामस्वरूप अपने मन के वास्तविक स्वरूप और प्रेम के सच्च आधार को उपस्थित करती हुई कहती है-‘ मैं तो दर्प से दीप्त तुम्हारी महत्त्वमय पुरुष मूर्ति की पुजारिन थी, जिसमें पृथ्वी पर अपने पैरों से खड़ी रहने को दृढ़ता थी।

इस स्वार्थ-मलिन कलुष से भरी मूर्ति से मेरा परिचय नहीं। अपने तेज की अग्नि में जो सब कुछ भस्म कर सकता हो, उस दृढ़ता का दुर्बल कम्पित और भयभीत हो।” आकाश के नक्षत्र कुछ बना बिगाड़ नहीं सकते। तुम आशंका मात्र दुर्बल कंप्लीट और भयभीत हो।

ध्रुवस्वामिनी नाटक की मूल समस्या

रामगुप्त और शंकराज दोनों में इस शक्ति का अभाव है-फलतः दोनों का परिणाम भी एक जैसा ही होता है। प्रसाद जी ने ध्रुवस्वामिनी में इन समस्याओं को उभारा ही नहीं है बल्कि इसका समाधान भी किया है। प्रसाद जी का अपना मत था कि नारी स्वावलम्बी तथा आत्मनिर्भर होकर ही पुरुष के माया जाल से मुक्त हो सकती है। इस समय समाज में पाश्चात्य संस्कृति तथा सभ्यता से प्रभावित लोग नारी के मोक्ष तथा पुनर्विवाह को समर्थक थे किन्तु कुछ लोग इसे अभारतीय कह कर निम्न मानते थे, लेकिन प्रसाद जी अन्धविश्वास को मानने वाले नहीं थे।

वे सही मायने में सांस्कृतिक पुनः उत्थान के संस्थापक थे। इसीलिए उनकी अपनी मान्यता थी। ‘आज जितने सुधार या समाजशास्त्र के जितने परीक्षात्मक प्रयोग देखे या सुने जाते हैं, उन्हें अनुचित या नवीन समझकर हम बहुत शीघ्र अभारतीय कह देते हैं, किन्तु मेरा विश्वास है कि प्राचीन आर्यावर्त के समाज की दीर्घकाल व्यापिनी परम्परा प्राय: प्रत्येक विधान का परीक्षात्मक प्रयोग किया है। तात्कालिक कल्याणकारी परिवर्तन भी हुए हैं। इसीलिए डेढ़ हजार वर्ष पहले यह अस्वाभाविक नहीं है।

ध्रुवस्वामिनी नाटक की मूल समस्या

इसीलिए इतिहास ग्रन्थ, नाम-पत्रों, मुद्राओं, ध्रुवस्वामिनी की घटनाओं, वृत्तान्तों एवं स्थानों की पुष्टि करने के साथ ही नारद और पराशर आदि की स्मृतियों तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र द्वारा प्रसाद जी ने यह स्पष्ट किया है कि पति के नष्ट होने, मरने, क्लीव होने तथा पतित होने की स्थितियों में स्त्री के मोक्ष या पुनर्विवाह का विधान इस देश अभारतीय नहीं माना जा सकता। इसी कारण से सामन्त कुमार राम गुप्त को हिंसक, क्लीव, पाखण्डी इत्यादि शब्दों से सम्बोधित करते हैं इस सम्बन्ध में पुरोहित का यह कथन द्रष्टव्य है-‘ यह रामगुप्त मृत और इन वचनों के द्वारा रचनाकार प्रसाद जी ने नारी के मोक्ष अथवा पुनः विवाह का समर्थन किया है।

राजनीतिक समस्या

राजनीतिक समस्या ध्रुवस्वामिनी की प्रमुख समस्या नारी की समस्या और नारी का मोक्ष ही है। प्रसाद जी की विचारधारा राष्ट्रवादी है, इसीलिए उन्होंने इस समस्या को एक देश के राजा से जोड़ते हुए राजनीतिक समस्या के रूप में चित्रित किया है। यदि किसी राष्ट्र का शासक विलासी अकर्मण्य अत्याचारी एवं भ्रष्ट हो तो देश निर्बल हो जाता है। इस निर्बलता के परिणामस्वरूप देश की शान्ति व्यवस्था भंग रहती है, अस्थिरता एवं अनिश्चय का वातावरण बन जाता है। बाहरी आक्रमण की सम्भावना बढ़ जाती है।

रामगुप्त ऐसा ही शासक है। वह अनाचारी, दुराचारी एवं क्लीव था। दिन-रात वह मदिरा और सुन्दरी के मायाजाल में पड़कर उसने देश की गरिमा को वीरों के पुरूषत्व को दाँव पर लगा दिया और अपनी पत्नी को घृणित सन्धि शर्तों के आधार पर शक-शिविर में भेज देता है। यही नहीं वह सामन्त कुमारों के लिए माँगी गयी स्त्रियों के प्रस्ताव को भी स्वीकार कर लेता है। यह कृत्य किसी पतित शासक के ही हो सकते हैं।

कविवर प्रसाद जी का अपना मत है-शासक चाहे शकराज जैसा उद्दण्ड, प्रतिशोध लेने को आतुर दुर्विनीत, अस्थिर विचारों वाला हो, या रामगुप्त जैसा कायर, विलासी एवं क्लीव हो-राज्य के शासन का अधिकारी नहीं। उपर्युक्त शासक से देश में विभिन्न प्रकार की कुरीतियाँ ही फैलेगी। इसीलिए प्रजा को अपने गौरव की रक्षा के लिए ऐसे शासक के शासन को उखाड़ देना चाहिए, तभी देश और समाज का कल्याण सम्भव है।

धार्मिक समस्या-

धार्मिक समस्या-ध्रुवस्वामिनी नाटक में प्रसाद जी ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों एवं अन्ध विश्वासों में कहीं-कहीं परिवर्तन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उन्होंने विवाह प्रसंग के माध्यम से विवाह सम्बन्धी धार्मिक मान्यता पर छींटा कशी की है और क्लीव, संयासी, पतित और मृत पति से नारी के मोक्ष की बात पर बल दिया है। समय के अनुसार धार्मिक मान्यताओं में परिवर्तन होना आवश्यक है, तभी समाज की उन्नति और विकास का रास्ता प्रशस्त होगा।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ध्रुवस्वामनी की मूल समस्या नारी की सामाजिक स्थिति और उसका समाधान है नारी की आत्मनिर्भरता तथा स्वावलम्बन पर आधारित मोक्ष दूसरी राजनीतिक समस्या का समाधान है-राज्य परिवर्तन प्रसाद जी ने ध्रुवस्वामिनी में दोनों समस्याओं का प्रतिपादन एवं समाधान किया है। इस नाटक में किसी नयी समस्या का उद्घाटन नहीं किया गया है अपितु यह समस्या बहुत पहले से है। इस नाटक के पात्रों में मानसिक द्वन्द्व प्रधान नहीं है। इस नाटक में एक ऐतिहासिक सत्य को आधुनिक परिवेश में पुनः जीवित करने का प्रयास किया गया है। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि ध्रुवस्वामिनी एक समस्या नाटक नहीं है।

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ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा pdf के साथ

इस लेख के बारे में:

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