ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा pdf के साथ (B.A. 1st year)

ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा pdf के साथ (B.A. 1st year)

नमस्कार दोस्तों, allhindi.co.in के एक नए लेख में आपका स्वागत है। आज की इस नए लेख में ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा करेंगे। इनसे जुड़ी और भी प्रश्न जैसे ध्रुवस्वामिनी रंगमंच की दृष्टि से एक सफल कृति है प्रस्तुत कथन के आधार पर मूल्यांकन कीजिए?, अथवा रंगमंचीयता की दृष्टि से ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा, प्रसाद की स्वच्छन्दतावादी नाट्य-धर्मिता जितना ध्रुवस्वामिनी में संयत है और कहीं नहीं ‘को दृष्टि में रखते हुए’ ध्रुवस्वामिनी ‘ नाटक पर विचार कीजिए।इस प्रकार के सभी प्रश्नों को आज के इस लेख में आपको उत्तर दिया जाएगा|

ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा

प्रश्न: ध्रुवस्वामिनी रंगमंच की दृष्टि से एक सफल कृति है प्रस्तुत कथन के आधार पर मूल्यांकन कीजिए?
प्रश्न: अथवा रंगमंचीयता की दृष्टि से ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा
प्रश्न: अथवा प्रसाद की स्वच्छन्दतावादी नादय-धर्मिता जितना ध्रुवस्वामिनी में संयत है और कहीं नहीं ‘को दृष्टि में रखते हुए’ ध्रुवस्वामिनी ‘ नाटक पर विचार कीजिए।

भूमिका

उत्तर- भारतीय प्राचीन विद्वानों ने नाटक को दृश्यकाव्य के अन्तर्गत रखा है। उनका मत था कि नाटक रंगमंच के अनुरूप होना चाहिए। इसीलिए प्राचीन समय में जो भी नाटक लिखे गये वे प्रायः रंगमंच की दृष्टि से सफल थे। विशाख, भास, अश्वघोष, कालिदास आदि की नाट्य कृतियाँ इसके प्रमाण है, लेकिन आधुनिक समय में जब छपाई कला के विकास के साथ ही पढ़े जाने वाले नाटकों का दौर चला तो नाटककारों ने नाटको ‘की अभिनेयता को तिलांजलि दे दी। विचार करने की बात यह है कि यदि नाटक को पाठ्य विधा मान लिया जाय तो भारतीय रंगमंच की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो जायेगी। 

ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा

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रंगमंच के सम्बन्ध में विद्वानों की मान्यताएँ

 इस सम्बन्ध में डॉ 0 रामकुमार वर्मा का मत है कि-“किसी भी भाँति नाटक की उत्कृष्टता का प्रश्न और निर्णय बिना मंच के सम्पर्क के बिना नहीं हो सकता। यदि नाटक प्राण है तो मंच उसका शरीर है। पाश्चात्य विद्वान इल्मर राइट का कथन भी रामकुमार वर्मा के कथन के समीप है-‘ नाटक का मूल सार शब्द नहीं क्रिया-कलाप है। नाटक खेलने के लिए ही लिखे जाते हैं।” इस विषय पर जयशंकर प्रसाद जी ने भी अपना मत दिया है उनका कथन है कि-‘नाटक को रंगमंच के बन्धन से मुक्त होना चाहिए। क्योंकि नाटक के लिए रंग मंच होता है न कि रंगमंच के लिए नाटक “। 

नाटक में अभिनेयता के लिए आवश्यक गुण- 

नाटक में अभिनेयता के लिए विद्वानों ने कुछ गुणों को होना आवश्यक माना है। जो निम्नलिखित है 

  1. नाटक की कथावस्तु सरस एवं सुबोध होनी चाहिए। 
  2. कथावस्तु में असम्भव एवं अरूचिकर घटनाओं को नहीं होना चाहिए। 
  3. नाटक में कम पात्र होने चाहिए।
  4. संवाद रोचक, सरल एवं प्रवाह पूर्ण होना चाहिए। 
  5. नाटक में हास्य-व्यंग्य का समावेश होना चाहिए। 
  6. नाटक की भाषा सरल, सुबोध प्रवाहपूर्ण एवं पात्रों के अनुकूल होनी चाहिए। 
  7. नाटक में दार्शनिकता का अभाव होना चाहिए। 

ध्रुवस्वामिनी में अभिनेयता-

उपर्युक्त गुणों के आधार पर जब हम’ ध्रुवस्वामिनी नाटक का मूल्यांकन करते हैं, तो यह निश्चित हो जाता है कि प्रसाद कृत ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक अभिनेयता और रंगमंच की दृष्टि से पूर्ण सफल है। 

कथानक में अभिनेयता

प्रसाद जी ने जितने भी नाटकों की रचना की है उन सभी में अभिनेयता की दृष्टि से ‘ध्रुस्वामिनी’ सबसे सफल है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि इस नाटक का कथानक अत्यन्त संक्षिप्त, सुंगठित एवं गति युक्त है। इस नाटक में घटनाओं की अधिकता नहीं है। मुख्य रूप से शकराज का सन्धि प्रस्ताव, सन्धि प्रस्ताव पर चन्द्रगुप्त द्वारा क्रोधित होकर स्त्रीवेश में शकराज के पास ध्रुवस्वामिनी के साथ जाना, उसका वध और उसके दुर्ग पर अधिकार, विजय के समाचार को सुनकर रामगुप्त का वहाँ जाना तथा ध्रुवस्वामिनी का मोक्ष प्राप्त करना और सामन्त कुमार द्वारा रामगुप्त का वध, इत्यादि ऐसी घटनाएँ हैं जिन्हें कम पात्रों के द्वारा रंगमंच पर सरलता पूर्वक अभिनीत किया जा सकता है।

प्रसाद जी ने प्रत्येक अंक के प्रारम्भ में ही रंगमंच के लिए आवश्यक निर्देश भी दिये हैं जो रंगमंच के निर्माण में सहायक हैं। उदाहरण के लिए प्रथम अंक का दृश्य द्रष्टव्य हैं-” शिविर का पिछला भाग, जिसके पीछे पर्वतमाला का प्राचीर है, शिविर का एक कोना दिखायी दे रहा है, जिससे सटा हुआ चन्द्रातप टँगा है। मोटी-मोटी रेशमी डोरियों से सुनहले काम के परदे स्तम्भों से बँधे हैं। दो तीन सुन्दर मंच रखे हुए हैं। चन्द्रातप और पहाड़ी के बीच छोटा—सा कुंज, पहाड़ी पर से एक पतली जलधारा उस हरियाली रंगमंच के निर्देश के कारण इन दृश्यों का निर्माण सरलता पूर्वक किया जा सकता है। 

संवादों एवं घटनाओं में नाटकीयता-

विवेच्य नाटक की घटनाएँ न तो अस्वाभाविक हैं और न ही अरुचिकर है। इस नाटक के संवाद सजीव, सरल, प्रवाहपूर्ण है। इस नाटक के संवाद पात्रों के अनुकूल हैं। इसमें नाटकीयता है, जिससे नाटककार दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुआ है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है (ध्रुवस्वामिनी क्रोध से) “संसार मिथ्या है या नहीं, यह तो मैं नहीं जानती, परन्तु आपका कर्मकाण्ड और आप के शास्त्र क्या सत्य हैं-जो सदैव रक्षणीया स्त्री की यह दुर्दशा हो रही है। 

हास्य और व्यंग्य-

हास्य और व्यंग्य के अभाव में नाटक में नीरसता आ जाती है। नाटक निर्जीव हो जाया करता है। नाटक में हास्य-व्यंग्य का होना नितान्त आवश्यक हुआ करता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए नाटककार प्रसाद जी ने इस नाटक में हास्य और व्यंग्य का समावेश किया है। उदाहरण के लिए ध्रुवस्वामिनी का निम्नलिखित कथन देखने लायक है-” उसे छोड़ दो कुमार। यहाँ पर एक वही नपुंसक तो नहीं। बहुत से लोगों में किस-किस को निकालोगें। ” 

सुमुधर गीतों का समावेश-  

सहृदय के मनोरंजन के लिए नाटकों में गीतों का समायोजन किया जाता है। नाटक में गीतों की बहुलता नहीं होनी चाहिए। ध्रुवस्वामिनी में चार गीत हैं जो आकर्षक, सरस, स्वाभाविक हैं। इस नाटक के गीत अवसर के अनुकूल हैं। प्रसाद जी ने इस नाटक में गीतों का समावेश करके सौन्दर्य और लोकानुरञ्जन की वृद्धि की है। 

कायिक, वाचिक एवं सात्विक अभिनयों का गुम्फन

ध्रुवस्वामिनी अभिनय की दृष्टि से एक सफल नाट्य कृति है। इसमें अभिनय की विविधता है। इसमें अभिनय के विविध प्रकारों का समायोजन किया गया है। इसमें वाणी के द्वारा कथ्य को प्रभाव पूर्ण बनाने का प्रयास किया गया है। सात्विक अभिनयों के द्वारा दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया गया है। इन अभिनयों के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं-हिजड़े का कुबड़े की पीठ पर बैठना, बौने द्वारा मोद्दल को तलवार की भांति घुमाना, हँसकर, बातकाट कर, क्रोध से आश्चर्य से, इत्यादि। 

संकलन त्रय का पूर्ण निर्वहन-

ध्रुवस्वामिनी’ में एक हीमूलकथा है। कथावस्तु व्यवस्थित है। इस नाटक में पात्रों की अधिकता नहीं है। पूरा नाटक तीन अंकों में विभाजित है। प्रत्येक अंक में केवल एक ही दृश्य है जो अपने-आप में पूर्ण एवं धारावाहिक है। ध्रुवस्वामिनी नाटक का सम्पूर्ण कथानक अंकों के अनुकूल तीन खण्डों में विभक्त है और प्रत्येक अंक व दृश्य की घटनायें तथा कार्य व्यापार एक स्थान के होने के कारण संकलनत्रय का पूर्ण निर्वहन हुआ है।

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन एवं विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘ध्रुवस्वामिनी’ प्रसाद जी की एक नाट्य कृति है। इस नाटक में नाटकीय तत्वों का पूर्ण विकास हुआ है यही प्रसाद जी की नाट्यकला का परिचायक है। अत: हम कह सकते हैं कि ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक रंगमंच एवं अभिनय की दृष्टि से एक सफल कृति है।

ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा pdf

यह लेख B.A. 1st year की परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर है| अगर आपको ग्रेजुएशन से जुडी कोई प्रश्नों का हल जानना चाहते हैं तो कृपया हमे कमेंट करके बताये हम उन सभी प्रश्नों का हल बताएँगे। यहाँ पर हमने ध्रुवस्वामिनी नाटक की समीक्षा pdf की डाउनलोड लिंक दी गयी है इसे आप एक क्लिक में डाउनलोड कर सकते हैं।

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