मैथिलीशरण गुप्त जी को राष्ट्रकवि क्यों कहा जाता है ?

मैथिलीशरण गुप्त जी को राष्ट्रकवि क्यों कहा जाता है ?

प्रिय साथियों आज की इस लेख में आप सभी का स्वागत हैं। आज की इस लेख में आप जानेंगे की मैथिली शरण गुप्त जी को राष्ट्रकवि क्यों कहा जाता है? चलिए आज की इस लेख की शुरुआत करते हैं और जानते हैं की मैथिलीशरण गुप्त जी को राष्ट्रकवि क्यों कहा जाता है ?

मैथिलीशरण गुप्त जी को राष्ट्रकवि क्यों कहा जाता है ?

राष्ट्रीय कवि

गुप्त जी ने अपनी रचनाओं में प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय कवि के रूप में हमारे सामने आये है। वे इस युग के प्रथम राष्ट्रीय कवि है। इसी राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर उन्होने भारत की प्राचीन गौरवगाथा का गान करके देश के जन-जन में जागृति उत्पन्न की है और राष्ट्रप्रेम का संचार किया है।

गुप्त जी की ‘भारत भारती’ तो एक राष्ट्रीय गीता के रुप में हमारे सामने आयी, और राष्ट्र प्रेमियों ने ‘भगवद्’ गीता के समान ही उसे कण्ठस्थ किया। इसमें भारतीय जीवन के अतीत वर्तमान और भविष्य तीनो चित्र अंकित किये गये है- “हम कौन थे, क्या हो गये और क्या होगे अभी” प्राचीन भारत से प्रेरणा, वर्तमान भारत की विकमता और भविक्य की आशा कुछ इसी में है –

”होकर निराश कभी न बैठो, नित्य उद्योगी बनो”

इसी प्रकार कवि ने ब्रिटिश शासन की दासता के बन्धन काटकर भारत माता को मुक्त करने की अतुल प्रेरणा और आत्मिक शक्ति दीहै। ‘जयद्रथ वध’ में राष्ट्र-यज्ञ में अभिमन्यु की प्राणाहुति, ‘अनध’ में गांधीवाद का सुन्दर और मूर्तरुप, चन्द्रहास और ‘तिलोत्तमा’ में परस्पर विरोध का कटु परिणाम, ‘किसान’ में वर्तमान कृषक का दीनहीन जीवन और राष्ट्र प्रेम, ‘साकेत’ में राम-राज्य का नवीनतम रूप, ‘पंचवटी’ में राष्ट्रीयता के मूलाधार कर्तव्य निष्ठा और जितेन्द्रीयता आदि से युक्त संयम, ‘द्वापर’ में राष्ट्र निर्माता कृष्ण का अनुपम कार्य, ‘सरन्ध्री’ में नारी का आत्म गौरव आदि भावनाएं अन्तरात्मा से कवि से राक्ट्रप्रेम – की गम्भीरता को सार्थक करती है।

उनके इस विशुद्ध राष्ट्रीय प्रेम में राष्ट्र की एकता का स्वर गुंजित है-“हिन्दू मुसलमान की प्रीति, मेरी मातृभूमि को भीति और वे कह उठते है- ” अटक-कटक तक एक अभंग, दुख में सुख में हो सब संग “वे अपनी मातृभूमि की कितनी सुन्दर और अपूर्व कल्पना करते है –

“नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट में खला रत्नाकर है”

गाँधीवादी- गुप्त जी गाँधीवादी है। उनका ‘साकेत’ गाँधीयुग की कृति है। अत: ‘साकेत’ पर गाँधी-युग और गाँधीवाद का पूर्ण प्रभाव है। इसके दो रूप है- (1) सत्य (2) अहिंसा, सत्याग्रह उसका क्रियात्मक और दीन सेवा उसका मूर्त रूप है। विजय उसका बल है। इन सभी गाँधी तत्वों का ‘साकेत’ में सुन्दर समावेश है। ‘साकेत’ के मर्यादा पुरुषोत्तम राम का सेवा भाव गाँधी दर्शन का फल है। राम कहते है-

“मैं आया उनके हेतु कि जो तापित है,
जो विवश विफल बलहीन दीन शापित है।
सन्देश यहाँ मैं नही स्वर्ग का लाया,
इस भूतल को ही स्वर्ग का लाया,
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया। ”

गाँधी जी की राम-राज्य ही ‘साकेत’ का राम राज्य है। दोनो में अपूर्व समानता है-

क. “नियत शासक लोक-सेवक मात्र है”
ख. “राज्य में दायित्व का ही भार है।”
ग. “पर वह मेरा देश नही जो करे दूसरे पर अन्याय”

गाँधी जी की चर्खा चक्र योजना और सीता की चरखा योजना में कोई अन्तर नही है। सीता कहती है-

‘आओ हम तुम काटे बुनें गान की लय में” गुप्त जी में गाँधीवाद का पर्याप्त प्रभाव है परन्तु यह प्रभाव उतना ही है, जितना इस युग के मानव और कवि में हो सकता है। यथार्थ में गुप्त जी महात्मा जी की अपेक्षा प्राचीन दिव्य भारतीय संस्कृति से अधिक प्रभावित है। गाँधीवाद उसका केवल व्यावहारिक रुप ही ले सका। इसका कारण गुप्त जी की लोक मंगल भावना है।

मानवतावादी-

गुप्त जी के काव्यों का स्तर शुद्ध मानवता वाद पर आधारित है उनमें मानवता की समानता और विश्व की एकात्मकता का सिद्धान्त है। अतः विश्व के मानवों में शोषण और अन्याय विषमता को दूर करके, स्वस्थ मानवतावाद की प्रतिष्ठापना की गई है। साहित्य में ‘सत’ की प्रशंसा द्वारा विश्व, सेवा, समाज सेवा, राष्ट्र सेवा और मानव सेवा का त्याग और अनुराग पूर्ण वर्णन करके एक अपूर्व परम लक्ष्य रखा गया है। कवि ‘अनघ’ में कहता-

‘न तन सेवा न मन सेवा, न जीवन और धन-सेवा मुझे है इष्ट जन-सेवा, सदा सच्ची भुवन-सेवा”

विश्व- हितैषी-

गुप्त जी में विश्व बन्धुत्व और कल्याण की भावना भी उक्त कारणों से अत्यन्त प्रबल है। वे ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के मानने वाले है। अतः उनके राम कहते है-

“किसी एक सीमा में बँधकर रह सकते है क्या ये प्राण एक देश क्या अखिल विश्व का तात ! चाहता हूँ मै प्राण”

समन्वित आर्दशवादी-

गुप्त जी भारत के अतीत गौरव के प्रति प्रेम, भारतीय संस्कृति में आस्था, गाँधीवाद का पोकण, मानवता में विश्वास और विश्व-कल्याण की कामना-ये उच्च कोटि की भावनाएँ प्रबल होने से, वे उच्च कोटि के आदर्शवादी है। उनके आदर्श में यर्थाथवाद का सुन्दर समन्वय है।

गुप्त जी के इस आदर्शवाद में पूर्व के रूढ़िवाद और पश्चिम के क्रान्तिवाद का भी सुन्दर समन्वय है। प्राच्य आदर्शो का मधुर नीति-सम्बद्ध करके अपूर्व मर्यादा-स्थापना का समन्वित आदर्श प्रस्तुत किया है।

वस्तुतः गुप्त जी कला के उपयोगितावाद के सिद्धान्त को मानते है। वे ‘कला’ ‘कला के लिये’ यह सिद्धान्त नही मानते। अतः लोक-मंगल की भावना से जो ‘शिव’ है उसी को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है वे स्वयं ‘साकेत’ में इस विकय में कहते है-

“हो रहा है जो जहाँ वह हो रहा,
यही वही हमने कहा तो क्या कहा।
किन्तु होना चाहिये कब क्या कहाँ,
व्यक्त करती है कला उसको वहाँ।
मानते है जो कला अर्थ ही,
स्वार्थिनी करते कला को व्यर्थ ही । “

इस प्रकार स्पष्ट है कि गुप्त जी ने राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र वाद को व्यापक अर्थ में लिया है। इसी आधार पर सभी ने गुप्त जी को मुक्त कंठ – था के माध्यम से कैकेयी से राष्ट्रकवि स्वीकार किया है।

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