मैथिलीशरण गुप्त का व्यक्तित्व एवं कृतित्व pdf: नमस्कार दोस्तों, आज की इस लेख में आप सभी का स्वागत हैं आज की इस लेख में आप सभी मैथिलीशरण गुप्त का व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में जानेंगे। इस लेख से B.A. 1st Year की परीक्षाओ की अभ्यर्थियों को मदद मिलेगी। तो आइये इस लेख की शुरुवात करते हैं।

कई बार परीक्षाओ में इस तरह के प्रश्न को अलग-अलग तरीको से पूछा जाता हैं जैसे: मैथिलिशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ बताइए, साकेत के अष्टम सर्ग के काव्य सौंदर्य का उद्घाटन कीजिये। साकेत के आठवे सर्ग के आधार पर मैथलीशरण गुप्त की काव्य कला की विवेचना, साकेत आठवे सर्ग के आधार पर मैथलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ
मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय [ Maithaleesharan Gupt Ka Jeevan Parichay ]
राष्ट्रकवि मैथिलिशरण गुप्त का जन्म उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के चिरगांव नामक स्थान में श्रावण शुक्ल द्वितीया सं0 1943 तिथि 3 अगस्त सन् 1886 को हुआ था। एक धर्मप्राण वैश्य परिवार में | सुखमय बाल्य जीवन व्यतीत करते हुए गुप्त जी ने भारतीय धर्म भक्ति एवं संस्कृति के आदर्श संस्कार सहज ही प्राप्त कर लिये थे। आपकी स्कूली शिक्षा दीक्षा बहुत ऊँची नही थी किन्तु बचपन से ही स्वाध्याय के प्रति एक सहज रुचि एवं निष्ठा आपमें विद्यमान थी।
युवावस्था तक भारतीय साहित्य, संस्कृति, काव्य और काव्यशास्त्र आदि का गहन अध्ययन एवं मनन आपने कर लिया था और भक्ति रस के पदों की रचना के साथ आपने काव्य रचना के क्षेत्र में केवल 14, 15 वर्ष की छोटी अवस्था में ही प्रवेश कर लिया। इसके बाद तो निरन्तर ‘सरस्वती’ जैसी पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित होने लगी और आपने लगभग 2 दर्जन मौलिक काव्य ग्रन्थों तथा लगभग एक दर्जन अनूदित काव्य तथा नाट्य-ग्रन्थों के द्वारा हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि की।
आपके काव्य में राष्ट्रीय भावनाओं तथा भारतीयता की चेतना भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक प्रेरक सिद्ध हुई जिसे देखते हुए आपको ‘राष्ट्रकवि’ के रुप में सम्बोधित किया गया है। आपने स्वतन्त्रता आन्दोलन के सम्बन्ध में जेल की यात्रा भी की थी स्वतन्त्रता के बाद आपको दो बार राज्यसभा के सदस्य के रुप में नामाकित करके सम्मानित किया गया। दि० 12 दिसम्बर सन् 1964 को आपकी मृत्यु हो गयी।
मैथलीशरण गुप्त की प्रसिद्ध रचनाएँ [ Maithaleesharan Gupt ki Prashidh Rachnayein ]
साकेत (1932) द्वापर (1936) स्वदेश संगीत (1925) कावा और कर्बला (1942) पंचवटी (1925) यशोधरा (1933) भारत-भारती (1914) जयद्रथ वध (1911) आदि। 1. काव्यगत विशेषताएँ
मैथलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय भावना-
गुप्त जी की रचनाओं में राष्ट्रीयता का स्वर सबसे प्रमुख है। राष्ट्र की एकता अखण्डता एवं सम्प्रभुता के स्वप्न द्रष्टा गुप्त जी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया। महात्मा गांधी के आदर्शों से पूरी तरह प्रभावित थे और स्वदेशी के सिद्धान्त में उनकी गहरी आस्था थी। बलिवेदी पर सर्वस्व न्यौछावर कर देने की प्रेरणा देने के लिये उन्होने अधिकांश कविताओं की रचना की। उनकी जो रचनाएं भारतीय इतिहास तथा पुराण आदि से सम्बन्धित है। उनमें भी राष्ट्रीयता का स्वर महत्वपूर्ण है। राष्ट्र के सामने जो चुनौतियां एवं समस्यायें हैं उनका यथास्थान चित्रण करते हुए आपने समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा एवं भारतीयता
भारतीयता संस्कृति एवं सभ्यता के महान आदर्शो के प्रति गुप्त जी के हृदय में असीम अनुराग था। सत्य, अहिंसा, त्याग, मैत्री, प्रेम और विश्वबन्धुत्व वैसे महान आदर्शो की स्थापना तथा नकारात्मक प्रवृत्तियों के निषेध के लये उनकी रचनायें समर्पित है।
इसीलिये उन्होने इतिहास तथा पुराण से आदर्श चरित्रों का ग्रहण किया है और अपने युग के विशेष सन्दर्भों में उनकी अवतारणा की है जहाँ ही आवश्यकता पड़ती है, पौराणिक चरित्रों के स्वरूप में आवश्यक परिवर्तन करके आपने साहस का परिचय दिया है। उदाहरण के लिये साकेत में उर्मिला के विरह निवेदन का चित्रण आपकी मौलिक कल्पना एवं निर्भीकता का परिचायक है।
गुप्त जी मानवतावादी रचनाकार हैं। मनुष्यता की प्रतिष्ठा के लिये वे अपनी रचनाओं के माध्यम से सतत संघर्षरत दिखलाई पड़ते है। मनुष्यता का निर्देशन मानव मात्र की एकता की अनुभूति में ही है। जितने भी भेदभाव है, वे सभी मनुष्य कृत कृत्रिम एवं अस्थायी है। इनके विरोध तथा सहज समानता की स्थापना से ही मानवता की प्रतिष्ठा सम्भव है, यह आपका सुचिन्तित मत है। स्वभावतः आपकी रचनाओं में पीड़ितों, दलितो तथा उपेक्षित वर्गों के प्रति सहानुभूति का स्वर महत्वपूर्ण दिखलाई पड़ता है।
मैथिलीशरण गुप्त का प्रबन्ध कौशल –
गुप्त जी आधुनिक युग में प्रबन्ध कौशल से सम्पन्न विरले रचनाकार है। आधुनिक काव्यधारा का झुकाव स्पष्टतः मुक्तक काव्य रचना की ओर था। ऐसे परिवेश में साकेत जैसे महाकाव्य तथा द्वापर, सिद्धराज तथा यशोधरा जैसे अनेकानेक खण्ड काव्यों की रचना करके गुप्त जी ने प्रबन्ध काव्य रचना की एक नई परिपाटी विकसित की। उनकी इस विशिष्टता का उल्लेख करते विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का कथन निम्नलिखित है
मैथिलीशरण गुप्त का व्यक्तित्व एवं कृतित्व pdf
“मुक्तको की प्रभूत रचना से हिन्दी की पिछले कँडे की कविता रसधारा प्रवाहित करने में समर्थ नही हो रही थी। अतः जनता को रसमग्न करने के लिये निबन्ध और प्रबन्ध के ग्रहण की आवश्यकता तो थी ही इस बात की भी आवश्यकता थी कि श्रृंगार की प्रणाली से हटकर कविता को चौड़े राजमार्ग पर लाया जाय। प्रेम का परिष्कृत रुप सामने किया जाय । वीर, करुण रसधारा बहाई जाय इसके लिये गुप्त जी ने ऐतिहासिक और पौराणिक इतिवृत्तों का ग्रहण किया।”
प्रबन्ध रचना के लिये गुप्त जी ने अधिकांशत: ऐसे ऐतिहासिक तथा पौराणिक प्रसंगों को लिया जिनकी आधुनिक जीवन सन्दर्भों मे उपयोगिता हो सकती है, तथा जिनके माध्यम से इस युग के लिये कोई-कोई प्रेरणापूर्ण सन्देश प्रस्तुत किया जा सकता है। इस प्रयास में वे आवश्यकतानुसार प्रसिद्ध प्रसंगो में थोड़ा बहुत परिवर्तन करने से नही चूकते।
उदाहरण के लिये साकेत में उन्होंने उर्मिला के विरह वर्णन की मौलिक उद्भावना की है। इसी प्रकार सिद्धराज में मूल कथानक तो उन्होने मध्यकालीन गुजरात के इतिहास से लिया है किन्तु आवश्यकतानुसार कल्पना के बल पर कतिपय नवीन प्रसंगो जैसे खंगार की कथा या अन्तिम सर्ग के होली मिलन जैसे उद्देश्यों की उद्भावना की है।
मैथिलीशरण गुप्त का वर्तमानोन्मुख इतिहास दृष्टि
गुप्त जी द्वारा रचित प्रबन्ध काव्यों विशेषतः सिद्धराज का अध्ययन करने में महत्वपूर्ण प्ररेणा तथा सन्देश ग्रहण करने के पक्षपाती है। इतिहास दुहराना विकास का चिह्न नही है। इतिहास की लकीर पीटते हुए अपने पूर्वजों की गलतियों को ढोना विकास तथा राष्ट्रभक्ति का परिचनायक नही है। जीवन पर्यन्त युद्ध में संलग्न सिद्वराज अन्त में इस तथ्य का अनुभव करता है। प्रेम मैत्री तथा सह-अस्तित्व की और उन्मुख होता है। इसी कारण गुप्त जी ने उसके चरित्र को अपने काव्य का वर्ण्य-विकाय बनाया है। उनकी इतिहास दृष्टि की विशिष्टता बतलाते हुए आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का कथन उल्लेखनीय है-
“ये वर्तमान की रंगभूमि पर पहुँचकर भी अतीत का परदा फाड़कर भारत के गौरव भारतीयों के हृदय, उनके वैभव, उनकी व्याप्ति अर्थात उनके उर्जस्वित और विभूतिमय रूपों की झाँकियां कराने वाले है, ये राष्ट्रकवि है और सच्चे अर्थ में राष्ट्रकवि है।”
मैथिलीशरण गुप्त का भाषा-शैली
जिस समय गुप्त जी ने काव्य रचना प्रारम्भ की, काव्य में ब्रजभाषा का प्रभाव महत्वपूर्ण था। अतः उनकी प्रारम्भिक भक्तिपरक रचनाओं पर ब्रजभाषा के प्रभाव को अस्वीकार नही किया जा सकता किन्तु खड़ी बोली काव्य के प्रतिष्ठापकों में गुप्त जी अनन्य हैं। काव्य भाषा के रुप में खड़ी बोली की सामर्थ्य सिद्ध करने के लिये आपने इसके संस्कृत निष्ठ स्वरुप की रक्षा करते हुए उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि के प्रचलित प्रभावपूर्ण शब्दों को ग्रहण किया और आवश्यकतानुसार बोलचाल के शब्दों एवं मुहावरो का सामर्थ्य भी उद्घाटित किया।
गुप्त जी ने प्रबन्ध और मुक्तक दोनो ही काव्य-शैलियों में समान रुप से सफलता प्राप्त की है। शास्त्रीय छन्द-मालिनी, बसन्ततिलका, और मन्दाक्रान्ता आदि की सफल अवतारणा के साथ आपने मुक्त छन्दों की भी रचना की है।
मैथिलीशरण गुप्त का अलंकार
गुप्त जी अलंकार के मर्मज्ञ थे किन्तु उन्होने कही भी प्रयत्नपूर्वक अलंकारों की योजना द्वारा काव्य को बोझिल नही बनाया है। अलंकार का स्वाभाविक एवं सहज प्रयोग उनके काव्य को अधिक अर्थपूर्ण एवं प्रभावोत्पादक बनाता है।
मैथिलीशरण गुप्त का रस
गुप्त जी ने भक्ति, श्रृंगार, वीर तथा शान्त आदि विभिन्न रसों की रचनाएं की है किन्तु उनकी रचनाओं में निर्विवाद रुप में वीर रस की प्रधानता है, और राष्ट्रकवि का सम्बोधन ही उनके लिये सबसे उपयुक्त है।